मायका वजूद कहा
मायके से ससुराल में आई
ढूंढ रही है घर फिर अपना।
थककर हारी फिर बेचारी,
ढूंढ रही वजूद कहीं अपना।
बेटी हूं बहना हूं मैं प्यारी,
मैं रही हूं सबकी दुलारी।
हर रिश्ते में ढल जाती हूं,
वजूद कहीं नहीं पाती हूं।
ममता सी नदी डाली हूं,
महकती फुलवारी हूं।
माली सी देखभाल करती,
एक प्यार की क्यारी हूं।
चौबीस घंटे काम में करती,
बिन पैसे की नौकरी करती।
शिद्दत से पूरा साथ निभाती,
अपना वजूद कहीं नहीं पाती।
जीवन मेरी कोई पहेली,
अनसुलझी सी है सहेली।
कभी गुलाब सी खुशबू मिलती,
कांटो की चुभन हरदम दिखती।
हर ओर से नजरें ताक रही,
मानो निशाना साध रही।
महफूज कहां में रहती हूं,
बस अपना वजूद ढूंढती हूं।
सदियों से सुनी यही कहानी,
आंचल में दूध आंखों में पानी।
युग बदले हैं बदला जमाना,
ढूंढू मैं वह तो वजूद पुराना।
हर दौर में मुझको परखा गया,
कसौटी पर मुझको कसा गया।
थक कर हारी देखो सारा जहां,
पर वजूद मेरा है कहांँ?
खड़ी होना जब मैं चाहती हूं,
उड़ने को पंख फैलाती हूं।
हर बार खींचली जाती हूं,
बस मुश्किल से उड़ पाती हूं।।
रचनाकार ✍️
मधु अरोरा
Abhinav ji
24-Apr-2023 09:42 AM
Very nice
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Punam verma
24-Apr-2023 07:19 AM
Very nice
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नवीन पहल भटनागर
23-Apr-2023 11:58 PM
🙏🙏👍👍
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